आस-पास या दूर-दराज घटित हुई या घट रही घटनाओं से बैचैन हुआ मन भी प्रकृति की
छुअन को महसूस किए बिना नहीं रह पाता। हो सकता है कि ये मेरे मन में समाया हुआ
कोई मनोरोग हो या फिर गाँव-घर का दिया हुआ वह संस्कार हो जिसने मेरी चेतना को
अभी तक ऋतुओं और उनमें होने वाले परिवर्तनों से जोड़े रखा है। या फिर ऐसा भी हो
सकता है कि शहर में रहते हुए भी अभी तक गँवार ही हूँ कि गाहे-बे-गाहे घास-फूस,
फूल-पत्ती या खेत-खलिहान का खाता खतिऔना लेकर बैठ जाता हूँ।
दीपावली बीत गई और सूप व कंडे की मदद से घर का दलिद्दर खदेड़ने के बाद गोधन
कूटने का दिन भी आ गया। गोधन त्यौहार का नाम सुनते ही 20-25 साल पीछे के अपने
बचपन के दिनों में पहुँच जाता हूँ। पड़ोस के घर की एक बुआ थीं जो गोधन त्यौहार
के दो रोज पहले से ही आस-पड़ोस के घरों के पशुओं का गोबर लोगों को बोलकर अडवांस
में ही बुक कर देती थीं।
गोधन के दिन सुबह होते ही बुआ पड़ोस की लड़कियों को इकट्ठा करके साथ मिल-जुलकर
दो रोज पहले से ही जुटाए गोबर का गोधन बनातीं। गोधन को बनाने में गोबर का एक
घेरा तैयार किया जाता फिर उसी घेरे में गोधन के साथ अन्न कूटने का ढेंका,
पीसने का जाँता, कूटने वाली ऊखल और साथ ही साथ हल, जुआ, बरही बैलगाड़ी आदि खेती
के उपकरण भी बनाए जाते। बुआ की मदद के लिए मैं और मेरे भाई सब के सब मिलकर
गोधन को बनाने में गोबर के साथ भटकोईया, भँडभाँड और कुछ और भी कँटीली
वनस्पतियों को जुटाने का यत्न करते थे। गोधन बनाने के बाद उसको फूलों से सजाया
जाता। उसका माँगलिक श्रृँगार किया जाता। गोधन का श्रृँगार हो जाने के बाद गाँव
की बुजुर्ग औरतें भी जुटतीं और मंगल गीत गातीं।
उठहु हे देव उठहु, सुतल भईलें छौ मास।
तोहरे बिना ये देव, बारी न बियहल जा, बियहल ससुरा न जाय।
झम झम झमकी मानर बाजी, मंगल यही छौ मास।।
(उठो हे देव उठो, आपको सोए छह मास बीत गए। आपके बिना कुँवारी कन्या का ब्याह
नहीं होगा, और ब्याही कन्या ससुराल नहीं जाएगी। झमाझम मृदंग बजेगा और आगे के
छह महीने मंगल के महीने होंगे।)
इस गीत के प्रसंग से एक बात कहनी जरूरी है की गोधन के बाद से ही कुँवारी
कन्याओं के पिता उनके योग्य वर की तलाश में निकलते हैं। पिछले सारे शुभ कामों
का आरंभ भी गोधन के बाद से ही किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवप्रबोधिनी
एकादशी से चार माहीने पूर्व देव शयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु व अन्य देवता
लोग सोने चले जाते हैं इसीलिए इन चार महीनों में शादी, ब्याह, मुंडन आदि
माँगलिक संस्कार नहीं किए जाते। ये सारे कार्य देवप्रबोधिनी या देव उठानी
एकादशी के बाद शुरू होते है, गोधन की पूजा जिसकी पूर्व-पीठिका होती है।
बचपन के दिनों में गोधन का त्यौहार तो मेरे और मेरे भाइयों के लिए तथा गाँव के
दोस्तों के लिए अन्य खेलों की ही तरह कौतुहल भरा एक खेल होता था। युवतियाँ एक
साथ मिलकर मूसल से उस सजे-सजाए गोधन को कूटतीं। कूटने के बाद हर घर के लड़के
कूटे हुए गोबर वाले गोधन को अपने अपने घर ले जाते जिसे बाद में पिंडी बनाकर
सुखाया जाता और अनाज के ढेर में रखा जाता ताकि घर के अन्न और धन में लगातार
बढ़ोत्तरी होती रहे।
पिताजी ने हमें गोधन की कथा सुनाई थी जिसके मुताबिक गोधन एक दैत्य था जिसने
किसी नदी पर नहाने आई गोपियों को घेर लिया और बोला कि मुझे तुम लोग अपनाओ।
गोपियों ने विरोध किया लेकिन उस दैत्य के डर से वे गोपियाँ मान गईं। दैत्य को
इस बात का सहज विश्वास नहीं हुआ तो उसने उन गोपियों से कहा कि तुम लोग अपने
भाइयों को खूब श्राप दो तब हमें विश्वास होगा कि तुम लोगों ने मुझे अपने मन से
अपना लिया है। गोधन दैत्य के कहे अनुसार गोपियों ने भटकोईया, भँडभाँड आदि
बनस्पतियाँ इकट्ठा किया और एकत्रित होकर अपने भाइयों को श्राप दिया। बाद में
उन गोपियों को अपने भाइयों को दिए हुए श्राप से इतना अपराधबोध हुआ की उसका
उपशमन करने के लिए उन्होंने एक साथ मिलकर गोधन नामक दैत्य को खूब कूटा। इतना
कूटा कि वो अधमरा हो गया। मृत्यु की अंतिम अवस्था में जब कृष्ण आए तो उन्होंने
गोधन की अंतिम इच्छा जाननी चाही तो गोधन ने कहा कि मैं कुँवारा ही मर रहा हूँ।
अपने जीवन काल में मेरा किसी स्त्री से कोई संपर्क नहीं रहा, यही वजह रही कि
मैंने ये घृणित कर्म किया और इस अवस्था को प्राप्त हुआ।
कृष्ण ने कहा की तुम परेशान न हो, तुम्हारी मृत्यु के बाद भी तुम्हारी पूजा
होगी। कुँवारी कन्याएँ तुम्हारी नग्न प्रतिमा बनाकर तुम्हें मूसल से कूटकर
अपने भाइयों को दिए हुए श्राप का पश्चाताप करेंगी और तुम्हें भी तब कन्याओं का
साहचर्य मिलेगा। और गोबर से बने तुम्हारे शरीर के कूटे हुए हिस्सों का गोल
पिंड बनाकर लोग अनाज के ढेर में रखेंगे। शायद तभी से गोधन कूटने की परंपरा चल
पड़ी। गोबर से बनाए गोधन के देह के हिस्से का गोल पिंड बनाकर खलिहान के या घर
की देहरी में रखे अनाज के ढेर में रखने का चलन भी शुरू हो गया।
यह तो धार्मिक मान्यता की बात हुई। अब समझ में आता है कि इस त्यौहार की
किसानों की अर्थव्यवस्था और उनके सामाजिक जीवन के बीच सामंजस्य बनाने में एक
महती भूमिका रही होगी। खरीफ की फसल शारीरिक लगन की माँग करती है। अगर ऐसे सोचा
जाए कि किसानों ने एक सहमति के साथ गोधन को एक तय सीमा माना हो कि इसके पहले
सब लोग खेती गृहस्थी पर ध्यान देंगे। इस त्यौहार के बाद ही एक किसान दूसरे
किसान के घर शादी-ब्याह के प्रस्ताव के लिए जाएगा। रिश्ते-नाते या किसी उत्सव
की बात की जाएगी। इस चश्मे से गोधन पर्व का महत्व और बढ़ जाता है।
खैर मुझे बुआ और उनके साथ की अन्य युवतियाँ गोधन को कूटने के बाद जल का अर्घ्य
देकर अपने भाई को अशीषते हुए यह गीत गाना याद आता है।
ऐरो के कूटीलें, भैरो के कूटीलें, कूटीलें जम के दुआर
कूटीलें भईया के दुश्मन, सातो पहर दिन रात।
(ऐरो को कूटती हूँ, भैरो को कूटती हूँ, और कूटती हूँ यम के दरवाजे को। सातो
पहर, दिन और रात अपने भाई के दुश्मनों को कूटती हूँ।)
हलधरों के इस देश में गोधन का यह त्यौहार अब अपने मृत्यु के अंतिम चरण पर है।
हमने अपनी परंपरा से विच्छिन्न हो नई परंपरा का सृजन किया है। इसी पशुपालक देश
में हमने पशु तस्करी का कारोबार बढ़ाया है। पशुओं को चुनावी हथियार के रूप में
जब तब इस्तेमाल करने के हम आदी हो चुके हैं। अब हमारी इस नई परंपरा में अन्न
कूटने का ढेंका, पीसने का जाँता, कूटने वाली ओखल और साथ ही साथ हल, जुआ, बरही
बैलगाड़ी आदि खेती के उपकरण सहित खेती-किसानी का भी कोई मोल नहीं रहा।
गोधन का त्यौहार मनाने वाली बुआ के गुजरे हुए कई साल हो गए। लेकिन बुआ अब भी
मेरे सपने में आती हैं और मेरा नाम लेकर पूछती हैं कि कैसे हो? मैं बुआ से
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ पर कुछ कह नहीं पाता। बस टुकुर-टुकुर ताकता रहता हूँ।
समझ में ही नही आता कैसे कहूँ कि बुआ तुम जिस दुनिया को छोड़कर चलीं गई वो
दुनिया अब बदल गई है। जिस दरवाजे पर तुम गा गाकर गोधन बनाया करती थीं वो
दरवाजा अब कई हिस्सों में बँट चुका है। उस दरवाजे पर अब बरसात के बहते पानी को
लेकर उपजा विवाद हिंसक हो उठा है। गाँव की जो लड़कियाँ दरवाजे पर इकट्ठे हो
गोधन को सजाया करती थीं, त्यौहारों में एक दूसरे के घर आया जाया करती थीं, वो
लड़कियाँ विदा हो कर अपने अपने घरों को चली गईं। अब न कोई किसी के दरवाजे पर
बैठता है न कोई किसी के घर आता जाता है।